प्रश्न :
आज के संदर्भ में कबीर का मूल्यांकन कीजिये
उत्तर :
विगत साहित्यिक विरासत के मूल्यांकन, भक्ति काल के मूलभूत अंतर्विरोधों की परीक्षा तथा साहित्य में रहस्यवाद की भूमिका को लेकर पिछले 50 वर्षों की हिंदी समालोचना में जितने विवाद हुए हैं, सारे विवादों के केंद्र में कबीर ही रहे हैं। उनके साहित्य पर आचार्य शुक्ल की टिप्पणियों को लेकर भी बहस कम नहीं रही है इसके अतिरिक्त पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर नाम से एक स्वतंत्र पुस्तक ही लिख दी। इसके बावजूद अभी तक विवाद थमा नहीं है। इसी क्रम में नामवर सिंह ने दूसरी परंपरा की खोज नामक पुस्तक में कबीर की पुनः प्रतिष्ठा के क्रम में मार्क्सवादी साहित्य समीक्षा को खंगालने का एक प्रयास किया है।
दरअसल अतीत के क्लासिक साहित्य के मूल्यांकन के संदर्भ में आज की समालोचना के सामने दोहरी समस्या है- उस विशेष कालखंड में उक्त साहित्य की ऐतिहासिक भूमिका तथा आज के युग में उक्त साहित्य की सार्थकता। विगत युग की क्लासिक कृतियों के तत्कालीन संपूर्ण संदर्भ में अर्थवत्ता के हर आयाम का निचोड़ प्रस्तुत करने का दायित्व आलोचना के आगे एक चुनौती की तरह होता है। इसी तरह आज उक्त कृतियों को अपने युगबोध और वर्तमान यथार्थ के अंतर्विरोधों के हर आयाम के आलोक में पढ़ना होगा, तभी हम क्लासिक साहित्य की विगत अर्थवत्ता और वर्तमान सार्थकता के बीच संबंध कायम कर पाएँगे।
सबसे अंत में कबीर वाणी नामक एक पुस्तक का प्रकाशन हुआ जिसके संपादक उर्दू के प्रसिद्ध प्रगतिशील शायर अली सरदार जाफरी हैं। इस पुस्तक की भूमिका में सरदार जाफ़री ने उल्लिखित दोनों संदर्भ में अपना विवेचन प्रस्तुत करते हुए कहा कि कबीर की बानियों में दिखावटी धर्म से विद्रोह और वास्तविक धर्म के प्रचार का क्रांतिकारी पहलू यह था कि उसने मध्ययुग के मनुष्य को आत्मप्रतिष्ठा, आत्मसम्मान और आत्मविश्वास दिया और मनुष्य को मनुष्य से प्रेम करना सिखाया।
विगत युग में कबीर के कृतित्व का सार तत्व प्रस्तुत करने के बाद सरदार जाफरी ने आज के युग संदर्भ में अपना मंतव्य इस प्रकार रखा है: हमें आज भी कबीर के नेतृत्त्व की जरूरत है, उस रोशनी की जरूरत है जो इस संत के दिल से पैदा हुई थी। आज दुनिया आजाद हो रही है। विज्ञान की असाधारण प्रगति ने मनुष्य का प्रभुत्व बढ़ा दिया है। उद्योगों ने उनके बाहुबल में वृद्धि कर दी है। मनुष्य सितारों पर पहुँच चुका है। फिर भी वह तुच्छ है, संकटग्रस्त है और दुखी है। वह रंगों में बँटा हुआ है तथा जातियों में विभाजित है। उसके बीच धर्मों की दीवारें खड़ी हुई हैं तथा सांप्रदायिक द्वेष और वर्ग संघर्ष की तलवारे खींची हुई हैं।
इस प्रकार उपरोक्त परिस्थितियों में कबीर के विचारों की प्रासंगिकता पहले के सामान ही प्रासंगिक है जिससे सामाजिक अखंडता को एकीकरण में रूपांतरित करके समाज का संश्लिष्ट विकास किया जा सके।